Pratidin Ek Kavita
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
Khali Makaan | Mohammad Alvi
ख़ाली मकान।मोहम्मद अल्वी
जाले तने हुए हैं घर में कोई नहीं
''कोई नहीं'' इक इक कोना चिल्लाता है
दीवारें उठ कर कहती हैं ''कोई नहीं''
''कोई नहीं'' दरवाज़ा शोर मचाता है
कोई नहीं इस घर में कोई नहीं लेकिन
कोई मुझे इस घर में रोज़ बुलाता है
रोज़ यहाँ मैं आता हूँ हर रोज़ कोई
मेरे कान में चुपके से कह जाता है
''कोई नहीं इस घर में कोई नहीं पगले
किस से मिलने रोज़ यहाँ तू आता है''
Kahan Tak Waqt Ke Dariya Ko | Shahryar
कहाँ तक वक़्त के दरिया को । शहरयार
कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
ये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखें
बहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम को
कभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखें
सुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती है
कहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखें
हवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश हो
ज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखें
धुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारे
ये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखें
हमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोई
चलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें
Kharab Television Par Pasandeeda Programme | Satyam Tiwari
ख़राब टेलीविज़न पर पसंदीदा प्रोग्राम देखते हुए | सत्यम तिवारी
दीवारों पर उनके लिए कोई जगह न थी
और नए का प्रदर्शन भी आवश्यक था
इस तरह वे बिल्लियों के रास्ते में आए
और वहाँ से हटने को तैयार न हुए
यहीं से उनकी दुर्गति शुरू हुई
उनका सुसज्जित थोबड़ा बिना ईमान के डर से बिगड़ गया
अपने आधे चेहरे से आदेशवत हँसते हुए
वे बिल्कुल उस शोकाकुल परिवार की तरह लगते
जिनके घर कोई नेता खेद व्यक्त करने पहुँच जाता है
बाक़ी बचे आधे में वे कुछ कुछ रुकते फिर दरक जाते
जब हम उन्हें देख रहे होते हैं
वे किसे देख रहे होते हैं
ये सचमुच देखे जाने का विषय है
क्या सात बजकर तीस मिनट पर
एक अधपकी कच्ची नींद लेते हुए
उन्हें अचानक याद आता होगा
कि यह उनके पसंदीदा प्रोग्राम का वक़्त है
या हर रविवार दोपहर बारह के आस-पास
प्रसारित होती हुई कोई फ़ीचर फ़िल्म या कार्यक्रम चित्रहार देख कर
उनकी ज़िन्दगी रिवाइंड होती होगी
मसलन कॉलेज के दिनों में सुने हुए गीतों की याद
या गीत गाते हुए खाई गई क़समों की कसक
टीन के डब्बे नहीं हैं टेलीविजन
फिर भी उन्होंने वही चाहा जो घड़ियाँ चाहती रही हैं इतने दिनों तक
घड़ी दो घड़ी दिखना भर
यानी कोई उन्हें देखे सिर्फ़ देखने के मक़सद से
जिसे हम मज़ाक़ मज़ाक़ में टीवी देखना कह देते हैं
जब बिजली गुल हो
उस वक़्त उन्हें देखने से शायद कुछ ऐसा दिख जाए
जो तब नहीं दिखता जब टीवी देखना छोड़ कर
लोग तमाशा देखने लग जाते हैं जो टीवी पर आता है
Free Will | Darpan Sah
फ़्री विल । दर्पण साह
अगस्त का महिना हमेशा जुलाई के बाद आता है,
ये साइबेरियन पक्षियों को नहीं मालूम
मैं कोई निश्चित समय-अंतराल नहीं रखता दो सिगरेटों के बीच
खाना ठीक समय पर खाता हूँ
और सोता भी अपने निश्चित समय पर हूँ
अपने निश्चित समय पर
क्रमशः जब नींद आती है और जब भूख लगती है
इससे ज़्यादा ठीक समय का ज्ञान नहीं मुझे
जब चीटियों की मौत आती है, तब उनके पंख उगते हैं
और जब मेरी इच्छा होती है तब दिल्ली में बारिश होती है
कई बार मैंने अपनी घड़ी में तीस भी बजाए हैं
मेरे कैलेंडर के कई महीने चालीस दिन के भी गये हैं
मैं यहाँ पर लीप ईयर की बात नहीं करूँगा
मुक्ति और आज़ादी में अंतस और वाह्य का अंतर होता है
Prarthna | Antonio Rinaldi | Translation - Dharamvir Bharti
प्रार्थना। अन्तोन्यो रिनाल्दी
अनुवाद : धर्मवीर भारती
सई साँझ
आँखें पलकों में सो जाती हैं
अबाबीलें घोसलों में
और ढलते दिन में से आती हुई
एक आवाज़ बतलाती है मुझे
अँधेरे में भी एक संपूर्ण दृष्टि है
मैं भी थक कर पड़ रहा हूँ
जैसे उदास घास की गोद में
फूल
धूप के साथ सोने के लिए
हवा हमारी रखवाली करे—
हमें जीत ले यह आस्मान की
निचाट ज़िंदगी जो हर दर्द को धारण करती है
Lagta Nahi Hai Dil Mera | Bahadur Shah Zafar
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में । बहादुर शाह ज़फ़र
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
Ghaas | Carl Sandburg | Translation - Dharamvir Bharti
घास । कार्ल सैंडबर्ग
अनुवाद : धर्मवीर भारती
आस्टरलिज़ हो या वाटरलू
लाशों का ऊँचे से ऊँचा ढेर हो—
दफ़ना दो; और मुझे अपना काम करने दो!
मैं घास हूँ, मैं सबको ढँक लूँगी
और युद्ध का छोटा मैदान हो या बड़ा
और युद्ध नया हो या पुराना
ढेर ऊँचे से ऊँचा हो, बस मुझे मौक़ा भर मिले
दो बरस, दस बरस—और फिर उधर से
गुज़रने वाली बस के मुसाफ़िर
पूछेंगे : यह कौन सी जगह है?
हम कहाँ से होकर गुज़र रहे हैं?
यह घास का मैदान कैसा है?
मैं घास हूँ
सबको ढँक लूँगी!
Jo Ulajh Kar Rah Gayi Filon Ke Jaal Mein | Adam Gondvi
जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में । अदम गोंडवी
जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में
Aastha | Priyankshi Mohan
आस्था | प्रियाँक्षी मोहन
इस दुनिया को युद्धों ने उतना
तबाह नहीं किया
जितना तबाह कर दिया
प्यार करने की झूठी तमीज़ ने
प्यार जो पूरी दुनिया में
वैसे तो एक सा ही था
पर उसे करने की सभी ने
अपनी अपनी शर्त रखी
और प्यार को कई नाम,
कविताओं, कहानियों,
फूलों, चांद तारों और
जाने किन किन
उपमाओं में बांट दिया
जबकि प्यार को उतना ही नग्न
और निहत्था होना था
जितना किसी पर अटूट
आस्था रखना होता है
वह सच्ची आस्था
जिसको आज तक कोई
तमीज़,तावीज़ या तागा
नहीं तोड़ सके।
Anubhav | Nilesh Raghuvanshi
अनुभव | नीलेश रघुवंशी
तो चलूँ मैं अनुभवों की पोटली पीठ पर लादकर बनने लेखक
लेकिन मैंने कभी कोई युद्ध नहीं देखा
खदेड़ा नहीं गया कभी मुझे अपनी जगह से
नहीं थर्राया घर कभी झटकों से भूकंप के
पानी आया जीवन में घड़ा और बारिश बनकर
विपदा बनकर कभी नहीं आई बारिश
दंगों में नहीं खोया कुछ भी न खुद को न अपनों को
किसी के काम न आया कैसा हलका जीवन है मेरा
तिस पर
मुझे कागज़ की पुड़िया बाँधना नहीं आता
लाख कोशिश करूँ सावधानी बरतूँ खुल ही जाती है पुड़िया
पुड़िया चाहे सुपारी की हो या हो जलेबी की
नहीं बँधती तो नहीं बँधती मुझसे कागज़ की पुड़िया नहीं सधती
अगर मैं लकड़हारा होती तो कितने करीब होती जंगल के
होती मछुआरा तो समुद्र मेरे आलिंगन में होता
अगर अभिनय आता होता मुझे तो एक जीवन में जीती कितने जीवन
जीवन में मलाल न होता राजकुमारी होती तो कैसी होती
और तो और अगले ही दिन लकड़हारिन बनकर घर-घर लकड़ी पहुँचाती
अगर मैं जादूगर होती तो
पल-भर में गायब कर देती सिंहासन पर विराजे महाराजा दुःख को
सचमुच कंचों की तरह चमका देती हर एक का जीवन
सोचती बहुत हूँ लेकिन कर कुछ नहीं पाती हूँ
मेरा जीवन न इस पार का है न उस पार का
तो कैसे निकलूं मैं
अनुभवों की पोटली पीठ पर लादकर बनने लेखक ?
Stree Ka Chehra | Anita Verma
स्त्री का चेहरा। अनीता वर्मा
इस चेहरे पर जीवन भर की कमाई दिखती है
पहले दुख की एक परत
फिर एक परत प्रसन्नता की
सहनशीलता की एक और परत
एक परत सुंदरता
कितनी किताबें यहाँ इकट्ठा हैं
दुनिया को बेहतर बनाने का इरादा
और ख़ुशी को बचा लेने की ज़िद
एक हँसी है जो पछतावे जैसी है
और मायूसी उम्मीद की तरह
एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है
एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती
आईने की तरह है स्त्री का चेहरा
जिसमें पुरुष अपना चेहरा देखता है
बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है
अपने ताक़तवर होने की शर्म छिपाता है
इस चेहरे पर जड़ें उगी हुई हैं
पत्तियाँ और लतरें फैली हुई हैं
दो-चार फूल हैं अचानक आई हुई ख़ुशी के
यहाँ कभी-कभी सूरज जैसी एक लपट दिखती है
और फिर एक बड़ी-सी ख़ाली जगह
Jeb Mein Sirf Do Rupaye | Kumar Ambuj
जेब में सिर्फ़ दो रुपये - कुमार अम्बुज
घर से दूर निकल आने के बाद
अचानक आया याद
कि जेब में हैं सिर्फ दो रुपये
सिर्फ़ दो रुपये होने की असहायता ने घेर लिया मुझे
डर गया मैं इतना कि हो गया सड़क से एक किनारे
एक व्यापारिक शहर के बीचोबीच
खड़े होकर यह जानना कितना भयावह है
कि जेब में है कुल दो रुपये
आस पास से जा रहे थे सैकड़ों लोग
उनमें से एक-दो ने तो किया मुझे नमस्कार भी
जिससे और ज़्यादा डरा मैं
उन्हें शायद नहीं था मालूम कि जिससे किया उन्होंने नमस्कार
उसके पास हैं सिर्फ़ दो रुपये
महज़ दो रुपए होने की निरीहता बना देती है निर्बल
जब चारों तरफ़ दिख रहा हो ऐश्वर्य
जब चारों तरफ़ से पड़ रही हो मार,
तब निहत्था हो जाना है ज़िन्दगी के उस वक़्त में
जब जेब में हों केवल दो रुपये
फिर उनका तो क्या कहें इस संसार में
जिनकी जेब में नहीं हैं दो रुपये भी ।
18 Number Bench Par | Doodhnath Singh
18 नम्बर बेंच पर। दूधनाथ सिंह
18 नम्बर बेंच पर कोई निशान नहीं
चारों ओर घासफूस –- जंगली हरियाली
कीड़े-मकोड़े मच्छर अँधेरा
वर्षा से धुली हरी-चिकनी काई की लसलस
चींटियों के भुरेभुरे बिल –- सन्नाटा
बैठा सन्नाटा । क्षण वह धुल-पुँछ बराबर
कौन यहाँ आया बदलती प्रकृति के अलावा
प्रशासनिक भवन से दूर कुलसचिव के सुरक्षा-गॉर्ड
की नज़रों से बाहर ऋत्विक घटक की डोलती
दुबली छाया से उतर कौन यहाँ आया
एकान्त की मृत्यु बस रोज़ रात -– व्यर्थ
वृक्षों की छिदरी छाँह, झूमती हवा की चीत्कार संग
मैं फिरता वहाँ
सब कुछ गुज़रता है चुपचाप
आज रात नहीं कोई वहाँ
बात नहीं कोई
झँपती आँख नहीं कोई ।
Nanhi Pujaran | Asrar-Ul-Haq-Majaz
नन्ही पुजारन।असरार-उल-हक़ मजाज़
इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बाँहें पतली गर्दन
भोर भए मंदिर आई है
आई नहीं है माँ लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आँखों में भरी है
ठोड़ी तक लट आई हुई है
यूँही सी लहराई हुई है
आँखों में तारों की चमक है
मुखड़े पे चाँदी की झलक है
कैसी सुंदर है क्या कहिए
नन्ही सी इक सीता कहिए
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चाँद का टुकड़ा फूल की डाली
कम-सिन सीधी भोली भाली
हाथ में पीतल की थाली है
कान में चाँदी की बाली है
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली छत देख रही है
माँ बढ़ कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हँस देती है
हँसना रोना उस का मज़हब
उस को पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदिर में
मन उस का है गुड़िया-घर में
Mujhe Sneh Kya Mil Na Sakega? | Suryakant Tripathi Nirala
मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा?। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा?
स्तब्ध, दग्ध मेरे मरु का तरु
क्या करुणाकर खिल न सकेगा?
जग के दूषित बीज नष्ट कर,
पुलक-स्पंद भर, खिला स्पष्टतर,
कृपा-समीरण बहने पर, क्या
कठिन हृदय यह हिल न सकेगा?
मेरे दु:ख का भार, झुक रहा,
इसीलिए प्रति चरण रुक रहा,
स्पर्श तुम्हारा मिलने पर, क्या
महाभार यह झिल न सकेगा?
Shuddhikaran | Hemant Deolekar
शुद्धिकरण | हेमंत देवलेकर
इतनी बेरहमी से निकाले जा रहे
छिलके पानी के
कि ख़ून निकल आया पानी का
उसकी आत्मा तक को छील डाला रंदे से
यह पानी को छानने का नहीं
उसे मारने का दृश्य है
एक सेल्समैन घुसता है हमारे घरों में
भयानक चेतावनी की भाषा में
कि संकट में हैं आप के प्राण
और हम अपने ही पानी पर कर बैठते हैं संदेह
जब वह कांच के गिलास में
पानी को बांट देता है दो रंगों में
हम देख नहीं पाते
"फूट डालो और राज करों" नीति का नया चेहरा
वह आपकी आंखों के सामने
पानी के बेशकीमती खनिज लूटकर
किसी तांत्रिक की तरह हो जाता है फ़रार
'पानी बचाओ, पानी बचाओ'
गाने वाली दुनिया
देख नहीं पाती यह संहार ।
Prem Aur Ghruna | Natasha
प्रेम और घृणा | नताशा
तुम भेजना प्रेम
बार-बार भेजना
भले ही मैं वापस कर दूँ
लौटेगा प्रेम ही तुम्हारे पास
पर मत भेजना कभी घृणा
घृणा बंद कर देती है दरवाज़े
अँधेरे में क़ैद कर लेती है
हम प्रेम सँजो नहीं पाते
और घृणा पाल बैठते हैं
प्रेम के बदले
न भी लौटा प्रेम
तो लौटेगी
चुप्पी
बेबसी
प्रेम अपरिभाषित ही सही
घृणा
परिभाषा से भी ज़्यादा कट्टर होती है!
Antardwand | Alain Bosquet | Translation - Dharamvir Bharti
अंतर्द्वंद | आलेन बास्केट
अनुवाद : धर्मवीर भारती
मेरा बायाँ हाथ मुझे प्राणदंड देता है
मेरा दायाँ हाथ मेरी रक्षा करता है
मेरी आँखें मुझे निर्वासन देती हैं
मेरी वाणी मुझे प्रताड़ित करती है :
अब समय आ गया है कि तुम
अपने साथ संधिपत्र पर हस्ताक्षर कर दो!
और इस पुराने हृदय में
हज़ारों लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं
मेरे शत्रु और मेरे हताश मित्रों के बीच
जो अंत में समझौता कर लेंगे।
और ऐसी शांति का नया संसार बसाएँगे
जिसमें मेरे लिए कोई स्थान नहीं होगा!
Jahaz Ka Panchhi | Krishna Mohan Jha
जहाज़ का पंछी | कृष्णमोहन झा
जैसे जहाज़ का पंछी
अनंत से हारकर
फिर लौट आता है जहाज़ पर
इस जीवन के विषन्न पठार पर भटकता हुआ मैं
फिर तुम्हारे पास लौट आया हूँ
स्मृतियाँ भाग रही हैं पीछे की तरफ़
समय दौड़ रहा आगे धप्-धप्
और बीच में प्रकंपित मैं
अपने छ्लछ्ल हृदय और अश्रुसिक्त चेहरे के साथ
तुम्हारी गोद में ऐसे झुका हूँ
जैसे बहते हुए पानी में पेड़ों के प्रतिबिम्ब थरथराते हैं…
नहीं
दुःख कतई नहीं है यह
और कहना मुश्किल है कि यही सुख है
इन दोनों से परे
पारे की तरह गाढ़ा और चमकदार
यह कोई और ही क्षण है
जिससे गुज़रते हुए मैं अनजाने ही अमर हो रहा हूँ…
Pyar Ke Bahut Chehre Hain | Navin Sagar
प्यार के बहुत चेहरे हैं / नवीन सागर
मैं उसे प्यार करता
यदि वह
ख़ुद वह होती
मैं अपना हृदय खोल देता
यदि वह
अपने भीतर खुल जाती
मैं उसे छूता
यदि वह देह होती
और मेरे हाथ होते मेरे भाव!
मैं उसे प्यार करता
यदि मैं पत्ता या हवा होता
या मैं ख़ुद को नहीं जानता
मैं जब डूब रहा था
वह उभर रही थी
जिस पल उसकी झलक दिखी
मैं कभी-कभी डूब रहा हूँ
वह अभी-अभी अपने भीतर उभर रही है
मैं उसे प्यार करता
यदि वह जानती
मैं ख़ामोशी की लय में अकेला उसे प्यार करता हूँ
प्यार के बहुत चेहरे हैं।
Kai Aankhon Ki Hairat They Nahi Hain | Aks Samastipuri
कई आँखों की हैरत थे नहीं हैं | अक्स समस्तीपुरी
कई आँखों की हैरत थे नहीं हैं
नये मंज़र की सूरत थे नहीं हैं
बिछड़ने पर तमाशा क्यों बनाएँ
तुम्हारी हम ज़रूरत थे नहीं हैं
Awara Ke Daag Chahiye | Devi Prasad Mishra
आवारा के दाग़ चाहिए | देवी प्रसाद मिश्र
दो वक़्तों का कम से कम तो भात चाहिए
गात चाहिए जो न काँपे
सत्ता के सम्मुख जो कह दूँ
बात चाहिए कि छिप जाने को रात चाहिए
पूरी उम्र लगें कितने ही दाग़ चाहिए
मात चाहिए बहुत इश्क़ में फ़ाग चाहिए
राग चाहिए साथ चाहिए
उठा हुआ वह हाथ चाहिए नाथ चाहिए नहीं
कि अपना माथ चाहिए झुके नहीं जो
राख चाहिए इच्छाओं की भूख लगी है
साग चाहिए बाग़ चाहिए सोना है अब
लाग चाहिए बहुत विफल का भाग चाहिए
आवारा के दाग़ चाहिए बहुत दिनों तक गूँजेगी जो
आह चाहिए जाकर कहीं लौटकर आती राह चाहिए
इश्क़ होय तो आग चाहिए।
Lagaav | Ramdarash Mishra
लगाव | रामदरश मिश्र
उसने कविता में लिखा 'फूल'
तुमने उसे काटकर 'कीचड़' लिख दिया
उसने कविता में लिखा 'चिड़िया'
तुमने उसे काटकर 'गुरिल्ला' लिख दिया
और आपस में जूझने लगे
दरअसल तुम दोनों का
न फूल से कोई लगाव-अलगाव था
न चिड़िया से
तुम दोनों को
अपने-अपने अस्तित्व की चिन्ता सताती रही
और
तुम्हारी बहसों से बेख़बर
मस्ती से फूल खिलता रहा
चिड़िया गाती रही।
Main Ud Jaunga | Rajesh Joshi
मैं उड़ जाऊँगा | राजेश जोशी
सबको चकमा देकर एक रात
मैं किसी स्वप्न की पीठ पर बैठकर उड़ जाऊँगा
हैरत में डाल दूँगा सारी दुनिया को
सब पूछते बैठेंगे
कैसे उड़ गया ?
क्यों उड़ गया ?
तंग आ गया हूँ मैं हर पल नष्ट हो जाने की
आशंका से भरी इस दुनिया से
और भी ढेर तमाम जगह हैं इस ब्रह्मांड में
मैं किसी भी दुसरे ग्रह पर जाकर बस जाऊँगा
मैं तो कभी का उड़ गया होता
चाय की गुमटियों और ढाबों में गरम होते तन्दूर पर
सिंकती रोटियों के लालच में मैं हिलगा रहा इतने दिन
ट्रक ड्राइवरों से बतियाते हुए
मैदान में पड़ी खटियों पर
गुज़ार दीं मैंने इतनी रातें
क्या यह सुनने को बैठा रहूँ धरती पर
कि पालक मत खाओ ! मेथी मत खाओ !
मत खाओ हरी सब्ज़ियाँ !
मैं सारे स्वप्नों को गूँथ-गूँथकर
एक खूब लम्बी नसैनी बनाऊँगा
और सारे भले लोगों को ऊपर चढ़ाकर
हटा लूँगा नसैनी
ऊपर किसी ग्रह पर बैठकर
ठेंगा दिखाऊँगा मैं सारे दुष्टों को
कर डालो कर डालो जैसे करना हो नष्ट
इस दुनिया को
मैं वहीं उगाऊँगा हरी सब्ज़ियाँ और
तन्दूर लगाऊँगा
देखना एक रात
मैं सचमुच उड़ जाऊँगा।
Dekho Socho Samjho | Bhagwati Charan Verma
देखो-सोचो-समझो | भगवतीचरण वर्मा
देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ' जानो
इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो
लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो,
जीवन की धारा में अपने को बहने दो
तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो ।
वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो
ऊपर से ठोस दिखो, अन्दर से पोले हो
बन कर मिट जाने की एक तुम कहानी हो ।
पल में रो देते हो, पल में हँस पड़ते हो,
अपने में रमकर तुम अपने से लड़ते हो
पर यह सब तुम करते - इस पर मुझको शक है,
दर्शन, मीमांसा - यह फुरसत की बकझक है,
जमने की कोशिश में रोज़ तुम उखड़ते हो ।
थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में,
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में,
ज़िन्दगी तुम्हारी सीमित है, इतना सच है,
इससे जो कुछ ज़्यादा, वह सब तो लालच है
दोस्त उम्र कटने दो इस तमाशबीनी में ।
धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो
कडुआ या मीठा ,रस तो है छक कर छानो,
चलने का अन्त नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है
जब-जब थक कर उलझो, तब-तब लम्बी तानो ।
Isiliye | Gagan Gill
इसीलिए | गगन गिल
वह नहीं होगा कभी भी
फाँसी पर झूलता हुआ आदमी
वारदात की ख़बरें पढ़ते हुए
सोचता था वह
गर्दन के पीछे हो रही सुरसुरी को वह
मुल्तवी करता रहता था
तमाम ख़बरों के बावजूद
सोचता था
अपने लिए एक बिलकुल अलग अंत
इसीलिए जब अंत आया
तो अलग तरह से नहीं आया
Ve Sab Meri Hi Jaati Se Thin | Rupam Mishra
वे सब मेरी ही जाति से थीं | रूपम मिश्र
मुझे तुम ने समझाओ अपनी जाति को चीन्हना श्रीमान
बात हमारी है हमें भी कहने दो
ये जो कूद-कूद कर अपनी सहुलियत से मर्दवाद का बहकाऊ नारा लगाते हो
उसे अपने पास ही रखो तुम
बात सत्ता की करो
जिसने अपने गर्वीले और कटहे पैर से हमेशा मनुष्यता को कुचला है
जिसकी जरासन्धी भुजा कभी कटती भी है तो फिर से जुड़ जाती है
रामचरितमानस में शबरी-केवट-प्रसंग सुनती आजी सुबक उठतीं और
घुरहू चमार के डेहरी छूने पर तड़क कर सात पुश्तों को गाली देतीं
कोख और वीर्य की कोई जाति नहीं होती यह वे भी जानती थीं
जो पति की मोटरसाइकिल पर दौड़ती रहीं जौनपुर से बनारस तक
गर्भ में आई बेटी को मारने के लिए
जो घर के किसी मांगलिक कार्य में बैठने से इनकार कर देती हैं
बिना सोने का बड़का हार पहने, सब मेरी ही जाति से हैं
चकबन्दी के समय एक निरीह स्त्री का खित्ता हड़पने के लिए
जिसने अपनी बेटियों को कानूनगो के साथ सुलाया
जो रात भर बच्चे की दवाई की शीशी से बने
दीये के साथ साँकल चढ़ाए जलती रही
और थूकती रही इस लभजोर समाज पर
वह भी मेरी ही जाति से थी
जानते तो अप भी बहुत कुछ नहीं हैं महाराज!
हरवाह बुधई का लड़का जिसे हल का फार लगा
तो खौलता हुआ कडु का तेल डाल दिया गया
उसका चीख कर बेहोश होना ज़मींदार के बेटों का मनोरंजन बना
बुधई का लड़का अब बड़ा हो गया है
और उसी परिवार के प्रधान बेटे की राइफल लेकर
भइया ज़िंदाबाद के नारे लगाता है
तो हाँफता समाजवाद वहीं सिर पकड़कर बैठ जाता है
मेरी लड़खड़ाती आवाज़ पर आप हँस सकते हैं
क्योंकि मेरी आत्मा की तलछट में कुछ आवाज़ें बची रह गई हैं
जो एक बच्ची से कहती थी कि तुम्हें किसी सखी-भौजाई ने बताया नहीं
कि रात में होंठों को दाँतों से दबाकर
चीख कैसे रोकी जाती है जिससे कमरे से बाहर आवाज़ न जाए
हम जब ठोस मुद्दे को दर्ज करना चाहते हैं तो उसे भ्रमित करने के लिए सिर से
पैर तक सुविधा और विलास में लिथड़े जन जब कुलीनता का ताना देकर व्यर्थ की
बहस शुरू करते हैं तो मैं भी चीन्ह जाती हूँ विमर्श हड़पने की नीति
मुझे आपकी पहचानने की कला पर सविनय खेद है श्रीमान
क्योंकि एक आदमीपने को छोड़ आपने हर पन पहचान लिया
जो घृणा के विलास से मन को अछल-विछल करता है
रोम जला भर जानना काफ़ी कैसे हो सकता है
जब रमईपुरा और कुँजड़ान कैसे जले आप नहीं जानते
जहाँ समूची आदमीयत
सिर्फ़ घृणा-रसूख-नस्ल और जाति जैसे शब्दों पर खत्म हो जाती है
अपने कदमों की धमक पर इतराना तो ठीक है पर
बहुत मचक कर चलने पर धरती पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है
तम अपनी बनाई प्लास्टिक की गुड़ियों से अपना दरबार सजाओ महानुभाव
मन की कारा में आत्मा बहुत छटपटा रही है
मुझे अपनी कंकरही ज़मीन को दर्ज करने दो
जो मेरे पंजों में रह-रह कर चुभ जाती है।
Smriti Pita | Viren Dangwal
स्मृति पिता | वीरेन डंगवाल
एक शून्य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ
फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की
Ve Din Aur Ye Din | Ramdarash Mishra
वे दिन और ये दिन | रामदरश मिश्र
तब वे दिन आते थे
उड़ते हुए
इत्र-भीगे अज्ञात प्रेम-पत्र की तरह
और महमहाते हुए निकल जाते थे
उनकी महमहाहट भी
मेरे लिए एक उपलब्धि थी।
अब ये दिन आते हैं सरकते हुए
सामने जमकर बैठ जाते हैं।
परीक्षा के प्रश्न-पत्र की तरह
आँखों को अपने में उलझाकर आह!
हटते ही नहीं
ये दिन
जिनका परिणाम पता नहीं कब निकलेगा।
Walid Ki Wafaat Par | Nida Fazli
वालिद की वफ़ात पर | निदा फ़ाज़ली
तुम्हारी क़ब्र पर
मैं फ़ातिहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था
तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिस ने उड़ाई थी
वो झूटा था
वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से मिल के टूटा था
मिरी आँखें
तुम्हारे मंज़रों में क़ैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हूँ
सोचता हूँ
वो वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं
मैं लिखने के लिए
जब भी क़लम काग़ज़ उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ
बदन में मेरे जितना भी लहू है
वो तुम्हारी
लग़्ज़िशों नाकामियों के साथ बहता है
मिरी आवाज़ में छुप कर
तुम्हारा ज़ेहन रहता है
मिरी बीमारियों में तुम
मिरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी क़ब्र पर जिस ने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूटा है
तुम्हारी क़ब्र में मैं दफ़्न हूँ
तुम मुझ में ज़िंदा हो
कभी फ़ुर्सत मिले तो फ़ातिहा पढ़ने चले आना
Devi Banne Ki Raah Mein | Priya Johri 'Muktipriya'
देवी बनने की राह में | प्रिया जोहरी 'मुक्ति प्रिया'
देवी बनने की राह में
लंबा सफ़र तय किया हमने
कई भूमिकाऐँ बदली
आंसू की बूंदो का स्वाद चखा
खून बहाया
कटा चीरा ख़ुद को
अपमान के साथ
झेली कई यातनाएँ
हमने छोड़ा अपना घर
पुराने खिलौंने
अपनी प्रिय सखी
अपना शहर
हमने छोड़ दिया अपने सपनों को
और छोटी-छोटी आशाओं को
नहीं देखा कभी खुल कर
शहर को
नहीं जान पाए हम
खुद की मर्ज़ी से जीना
कैसा होता है
रात में सड़कों पर चलता हुआ
शहर कैसा दिखता है।
वह जगह कैसी होती है।
जहाँ पर केवल देव जा सकते है
कैसे होते हैं वह
स्थान जहाँ पर अजनबी चलते है।
नहीं पता हमें कैसे दिखती हैं
उसकी ज़मीन और आसमान
हमने नहीं तोड़ी घर की दीवारें
जो हमें रोकती थी
बल्कि बनाए घर
सजाया घर घरौंदा
मिट्टी से लिपा
चूल्हा चौका
पकाएँ खूब पकवान
कर के अपनी
खुशियों को
दरकिनार,
निभाया अपना देवी धर्म
हमने जानना छोड़ दिया
हमें क्या पसंद है।
हम बस चलते गए
और सीखते गए
अच्छी देवी बनने का सबक
हमने मंदिरों में दिए जलाये
तीज, व्रत और त्यौहार किये
हमने पीपल के पेड़ पर बांधे
मनोकामनाओं की धागे
नदी से,
पर्वत से,
चांद से,
पेड़ से ,
भगवान से
देव लोक के अमरत्व की
प्राथनाएँ की
हमने वह गीत गए
जो देव लोक को
प्रिय थे
हमने सजाया ख़ुद को
लगाया महावर
अपने पैरों में
पहनी हाथों में चूड़ियाँ
सजाई बिंदी
और कमरबंद
जब तक हम देवों के साथ थे
उसके बाद छोड़ दिए
सारे साजो श्रृंगार
हमने टाल दी लड़ाइयां
किए बहुत से समझौते
ताकि हमारा देवत्व
हमसे न रूठे
हमने देखा कि
यह सब भी कम पड़ा
खुद को देवी
साबित करने को
Main Sabse Choti Hun | Sumitranandan Pant
मैं सबसे छोटी हूँ | सुमित्रानंदन पन्त
मैं सबसे छोटी होऊँ,
तेरा अंचल पकड़-पकड़कर
फिरूँ सदा माँ! तेरे साथ,
कभी न छोड़ूँ तेरा हाथ!
बड़ा बनाकर पहले हमको
तू पीछे छलती है मात!
हाथ पकड़ फिर सदा हमारे
साथ नहीं फिरती दिन-रात!
अपने कर से खिला, धुला मुख,
धूल पोंछ, सज्जित कर गात,
थमा खिलौने, नहीं सुनाती
हमें सुखद परियों की बात!
ऐसी बड़ी न होऊँ मैं
तेरा स्नेह न खोऊँ मैं,
तेरे अंचल की छाया में
छिपी रहूँ निस्पृह, निर्भय,
कहूँ—दिखा दे चंद्रोदय!
Aapki Yaad Aati Rahi Raat Bhar | Makdoom Mohiuddin
आप की याद आती रही रात भर | मख़दूम मुहिउद्दीन
आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर
रात भर दर्द की शम्अ जलती रही
ग़म की लौ थरथराती रही रात भर
बाँसुरी की सुरीली सुहानी सदा
याद बन बन के आती रही रात भर
याद के चाँद दिल में उतरते रहे
चाँदनी जगमगाती रही रात भर
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर
Khidki Par Subah | TS Eliot | Translation - Dharmvir Bharti
खिड़की पर सुबह | टी. एस. एलियट
अनुवाद : धर्मवीर भारती
नीचे के बावर्चीख़ाने में खड़क रही हैं नाश्ते की तश्तरियाँ
और सड़क के कुचले किनारों के बग़ल-बग़ल—
मुझे जान पड़ता है—कि गृहदासियों की आर्द्र आत्माएँ
अहातों के फाटकों पर अंकुरित हो रही हैं, विषाद भरी
कुहरे की भूरी लहरें ऊपर मुझ तक उछाल रही हैं।
सड़क के तल्ले से तुड़े मुड़े हुए चेहरे
और मैले कपड़ों में एक गुज़रने वाली का आँसू
और एक निरुद्देश्य मुस्कान जो हवा में चक्कर काटती है
और छतों की सतह पर फैलती-फैलती विलीन हो जाती है।
Yahan Sab Theek Hai | Dheeraj
यहाँ सब ठीक है | धीरज
शहर जाने वालों के पास
हमेशा नहीं होते होंगे
वापस लौटने के पैसे
ऐसे में वो ढूंढते होंगे कुछ, और उसी कुछ का सब कुछ
कि जैसे सब कुछ का चाय-पानी
सब कुछ का नून- तेल
सब कुछ का दाल-चावल
और ऐसे में,
और जब कोई नया आता होगा शहर
तो उससे पूछते होंगे बरसात
मेला, कजरी चैत
करते होंगे ढेरों फ़ोन पर बात
और दोहराते होंगे बस यह बात
कि यहाँ सब ठीक है
आशा करता हूँ, वहाँ भी।
Yah Main Samajh Nahi Pati | Adiba Khanum
यह मैं समझ नहीं पाती| अदीबा ख़ानम
यह मैं समझ नहीं पाती
हम आख़िर किस संकोच से घिर-घिर के
पछ्छाड़े खाते हैं।
बार-बार भागते हैं अंदर की ओर
अंदर जहां सुरक्षा है अपनी ही बनाई दीवारों की
अंदर जहां अंधेरा है.
एक सुखद शान्त अंधेरा।
वह कौन सी हड़डी है
जो गले में अटकी है
और
जिसे जब चाहे निकालकर फेंका जा सकता है।
लेकिन
क्यों इस हड़डी का चुभते रहना हमें आनंद देता है?
और आख़िर यही संकोच
जिससे मैं जूझती हूं लगातार
बार-बार
अक्सर अपनों से दूर होकर
दुसरे अपनों को अपना न पाना
क्या इस शब्द का निचोड़ भर है?
या है नाउम्मीदी
अपनों के प्रति
यह अपना होता क्या है?
और पराए की धुन
मुझे फिर भी कभी-कभी
दूर से सुनाई पड़ती है
ये धुन बजती रहती है
पार्श्व में एक गहरी शांति से लबरेज़
ये सहारा देती है तब
जब उठता है मोह
उन लोगों से जिन्हें हम कहते हैं
अपना
दुनिया कहती है कि
मोह बहुत अच्छी चीज नहीं है
मैं पूछती हूँ कि मोह बुरी चीज़ क्यों है
जब चाँद के मोह से
खिंच सकते हैं समुद्र मनुष्य और भेड़िए
तब अपनों के मोह का निष्कर्ष बुरा क्यों है?
मोह सिखाती है धरती
अमोह कौन सिखाता है भला?
Bhagwan Ke Dakiye | Ramdhari Singh Dinkar
भगवान के डाकिए | रामधारी सिंह दिनकर
पक्षी और बादल,
ये भगवान के डाकिए हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं
मगर उनकी लाई चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह आँकते हैं
कि एक देश की धरती
दूसरे देश को सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा में तैरते हुए
पक्षियों की पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में पानी
बनकर गिरता है।
Maika | Anwesha Rai 'Mandakini'
मायका | अन्वेषा राय 'मंदाकिनी'
हिंदी के शब्दकोश में
प्रत्येक शब्द का एक अर्थ लिखा है,
मगर एक शब्द है जिसका अर्थ
ना मुंशी जी को पता है,
ना महादेवी को
और ना ही मुझे..
“मायका"
पढ़ने - पढाने के लिए
हमें
मायके का मतलब
“मा का घर" रटवा दिया गया है ।!
पर हर स्त्री,
जब भी लांघती है
ससुराल की दहलीज़,
मायके जाने के लिए,
तो आगे बढने से पूर्व
उसके मन में
एक सवाल
खूब उधम करता है !!
"माँ का घर कहाँ है!"
हिंदी ने लोगों को
मायका शब्द तो दे दिया,
मगर स्त्रियों को
उनकी माँ का घर नहीं दे पाई
या उनका ख़ुद का घर
जिसे उनकी आने वाले पीढ़ी की बेटी
माँ का घर कह सके !!
शायद इसीलिए कुछ पुरुष आज भी कहते हैं
“हिन्दी पढ़ के क्या होगा ?"
हर स्त्री ढूंढ रही है
अपना ठिकाना शब्दों में ही कहीं..
इसीलिए काम पर जाने को
घर से निकलती हर स्त्री
और
उसकी माँ
या शायद
उनकी भी माँ...
अपना घर तलाशती फ़िर रही है...
ताकि उसकी बेटी जान सके
ये मायका है !!
Pita Ka Hatyara | Madan Kashyap
पिता का हत्यारा | मदन कश्यप
उसके हाथ में एक फूल होता है
जो मुझे चाकू की तरह दिखता है
सच तो यह है कि वह चाकू ही होता है
जो कैमरों में फूल जैसा दिखता है
और उन तमाम लोगों को भी फूल ही दिखता है
जो अपनी आँखों से नहीं देखते
वह मेरे पिता का हत्यारा है
रोज़ ही मिलता है
टेलेविज़न चैनलों और अख़बारों में ही नहीं
कभी-कभार
सड़कों पर
आमने-सामने भी
मैं इतना डर जाता हूँ
कि डरा हुआ नहीं होने का नाटक भी नहीं कर पाता
चौदह वर्ष का था जब पिता की हत्या हुई थी
पिछले तीन वर्षों से बस यही सीख रहा हूँ
कि जीने के लिए कितना ज़रूरी है मरना
पिता का शव अस्पताल से घर आया था
तब मुझे ठीक से पता भी नहीं था कि उनकी हत्या हुई है।
हमें बताया गया था वे एक पार्टी में गये थे
और अचानक उनके ह्रदय की गति रुक गयी
तीसरे दिन हत्यारे के आ धमकने के बाद ही पता चला
कि उनकी हत्या हुई थी
उसके आने से पहले चेतावनियाँ आने लगी थीं
धमकियाँ पहुँचने लगी थीं
यह प्रलोभन भी कि मैं जी सकता हूँ
जैसे पिता भी चाहते तो जी सकते थे
बिल्कुल मेरे घर वह अकेले ही आया
सफेद कपड़ों में निहत्था एक तन्दुरुस्त आदमी
उसने अंगरक्षकों को कुछ पीछे और
अपने समर्थकों को कुछ और अधिक पीछे रोक दिया था
मेरे माथे पर हाथ फेरा
लगा जैसे चमड़े सहित मेरे बाल नुच जायेंगे
सिसकते हुए मैं अपने गालों पर लुढ़क रहे
आँसुओं को छूकर आश्वस्त हुआ
वह ख़ून की धार नहीं थी
वह बिना किसी आग्रह के बैठ गया
और हमारे ही घर में हमें बैठने का इशारा किया
फिर धीरे-धीरे बोलने लगा
मानो मुझसे या मेरी माँ से नहीं
किसी अदृश्य से बातें कर रहा हो
करनी पड़ती है
हत्या भी करनी पड़ती है।
तुम बच्चे हो और तुम्हारी माँ एक विधवा
धीरे-धीरे सब समझ जाओगे
मैं समझता हूँ तुम अभी जीना चाहते हो
और मैं भी इस मामले को यहीं ख़त्म कर देना चाहता हूँ
यह इकलौती नहीं है
और भी हत्याएँ हैं और भी हत्याएँ होनी हैं
तुम्हें साफ-साफ बता दूँ
कि हत्या मेरी मजबूरी या ज़रूरत भर नहीं है।
वे और हैं जो राजनीति के लिए हत्याएँ करते हैं
मैं हत्या के लिए राजनीति करता हूँ
हत्या को संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बनाकर
तमाम विवादों - बहसों को ख़त्म कर दूँगा एक साथ
और जाते-जाते तुम्हें साफ-साफ बता दूँ
तुम्हारे पिता की हत्या ही हुई थी
क्योंकि वह मुझे हत्यारा सिद्ध करने की ज़िद नहीं छोड़ रहे थे
अब तुम ऐसी कोई ज़िद मत पालना
वह चला गया तब कैमरेवाले आये
मैंने साफ-साफ कहा मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी
वह स्वाभाविक मौत थी ज़्यादा से ज़्यादा दुर्घटना कह सकते हैं
फिर मैंने स्कूल में अपने साथियों को ही नहीं
सड़क के राहगीरों और पड़ोसियों को ही नहीं
घर में अपने दादाजी को भी बताया
मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी
बस एक वही थे जो मान नहीं रहे थे
और एक दिन तो मैं सपने में चिल्ला उठा
नहीं-नहीं मेरे पिता की हत्या नहीं हुई थी!
Janhit Ka Kaam | Kedarnath Singh
जनहित का काम | केदारनाथ सिंह
मेह बरसकर खुल चुका था
खेत जुतने को तैयार थे
एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था
और एक चिड़िया बार-बार बार-बार
उसे अपनी चोंच से
उठाने की कोशिश कर रही थी
मैंने देखा और मैं लौट आया
क्योंकि मुझे लगा मेरा वहाँ होना
जनहित के उस काम में
दखल देना होगा।