Pratidin Ek Kavita
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
Ek Bahut Hi Tanmay Chuppi | Bhavani Prasad Mishra

एक बहुत ही तन्मय चुप्पी | भवानीप्रसाद मिश्र
एक बहुत ही तन्मय चुप्पी ऐसी
जो माँ की छाती में लगाकर मुँह
चूसती रहती है दूध
मुझसे चिपककर पड़ी है
और लगता है मुझे
यह मेरे जीवन की
लगभग सबसे निविड़ ऐसी घड़ी है
जब मैं दे पा रहा हूँ
स्वाभाविक और सुख के साथ अपने को
किसी अनोखे ऐसे सपने को
जो अभी-अभी पैदा हुआ है
और जो पी रहा है मुझे
अपने साथ-साथ
जो जी रहा है मुझे!
Dena | Naveen Sagar

देना | नवीन सागर
जिसने मेरा घर जलाया
उसे इतना बड़ा घर
देना कि बाहर निकलने को चले
पर निकल न पाए
जिसने मुझे मारा
उसे सब देना
मृत्यु न देना
जिसने मेरी रोटी छीनी
उसे रोटियों के समुद्र में फेंकना
और तूफ़ान उठाना
जिनसे मैं नहीं मिला
उनसे मिलवाना
मुझे इतनी दूर छोड़ आना
कि बराबर संसार में आता रहूँ
अगली बार
इतना प्रेम देना
कि कह सकूँ प्रेम करता हूँ
और वह मेरे सामने हो।
Ek Baar Kaho Tum Meri Ho | Ibn e Insha

इक बार कहो तुम मेरी हो | इब्न-ए-इंशा
हम घूम चुके बस्ती बन में
इक आस की फाँस लिए मन में
कोई साजन हो कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन रात अँधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो
जब सावन बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यूँ गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोके में
तुम कब तक दूर झरोके में
कब दीद से दिल को सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो
क्या झगड़ा सूद ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो
Mere Ekant Ka Pravesh Dwar | Nirmala Putul

मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार | निर्मला पुतुल
यह कविता नहीं
मेरे एकांत का प्रवेश-द्वार है
यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं
टिकाती हूँ यहीं अपना सिर
ज़िंदगी की भाग-दौड़ से थक-हारकर
जब लौटती हूँ यहाँ
आहिस्ता से खुलता है
इसके भीतर एक द्वार
जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं
तलाशती हूँ अपना निजी एकांत
यहीं मैं वह होती हूँ
जिसे होने के लिए मुझे
कोई प्रयास नहीं करना पड़ता
पूरी दुनिया से छिटककर
अपनी नाभि से जुड़ती हूँ यहीं!
मेरे एकांत में देवता नहीं होते
न ही उनके लिए
कोई प्रार्थना होती है मेरे पास
दूर तक पसरी रेत
जीवन की बाधाएँ
कुछ स्वप्न और
प्राचीन कथाएँ होती हैं
होती है—
एक धुँधली-सी धुन
हर देश-काल में जिसे
अपनी-अपनी तरह से पकड़ती
स्त्रियाँ बाहर आती हैं अपने आपसे
मैं कविता नहीं
शब्दों में ख़ुद को रचते देखती हूँ
अपनी काया से बाहर खड़ी होकर
अपना होना!
Lafzon Ka Pul | Nida Fazli

लफ़्ज़ों का पुल | निदा फ़ाज़ली
मस्जिद का गुम्बद सूना है
मंदिर की घंटी ख़ामोश
जुज़दानों में लिपटे आदर्शों को
दीमक कब की चाट चुकी है
रंग
गुलाबी
नीले
पीले
कहीं नहीं हैं
तुम उस जानिब
मैं इस जानिब
बीच में मीलों गहरा ग़ार
लफ़्ज़ों का पुल टूट चुका है
तुम भी तन्हा
मैं भी तन्हा
Ramayana Mein Mahabharat | Avtar Engill

रामायण में महाभारत | अवतार एनगिल
रविवार की सुबह
उस औरत ने
बड़ी मुश्किल से
पति और बच्चों को जगाया
किसी को ब्रश
किसी को बनियान
किसी को तौलिया थमाया
चूल्हे के सामने खड़ी
जैसे चौखटे में जड़ी
बड़े के लिए लिए परांठे
छोटों को ऑमलेट
’उनके’ लिए कम नमक वाला
सासु के लिए नरम
ससुर के लिए गरम
अलग अलग अलग
नाश्ते बना रही है
और उसकी सासु माँ
चौपाईयाँ गा रही है
टी-वी. पर
रामायण आ रही है
उसके कॉमरेड पति
अहिल्या के मुक्ति प्रसंग पर
भाव विह्वल होते हुए
बलिहारी जा रहे हैं
और छोटे को आवाज़ लगाकर
अपना नाश्ता
टी. वी. वाले कमरे में मंगवा रहे हैं
एकाएक
वह औरत
रसोई की खिड़की से
लल्लन को देखती है
चिल्लाकर कोसती है
और पलक झपकते
करघी लहराहते हुए
उसे जा दबोचती है।
हड़बड़ा कर उठते हुए
पिताजी को लगता है
कि वे सभी
रामायण देखते हुए
सो रहे थे
संभवतः
महाभारत के बीज बो रहे थे
Tumhare Bagair Ladna | Vihaag Vaibhav

तुम्हारे बग़ैर लड़ना | विभाग वैभव
तुम्हारे जाने के बाद
मैं राह के पत्थर जितना अकेला रहा
फिर एक दिन सिसकियों को एक खाली कैसेट में डालकर
किताबों के बीच छिपा दिया
बहुत से लोग थे जिन्हें फूलों की ज़रुरत थी
मैंने माली का काम किया
किसी कमज़ोर के खेत का पानी
किसी ने लाठी के दम पर काट लिया
दोस्तों को जुटाया
हड्डियों को चूम लेने वाली सर्दियों की रातों में
घुटने तक पानी मे खड़ा रहा
न्याय के लिए विवेक भर अड़ा रहा
(एक गेहूँ उगाने के लिए खोलने पड़ते हैं कितने मोर्चे
कितना आसान है
ख़ारिज कर देना एक वाक्य में पूरा का पूरा जीवन)
किसी की ख़ुशी में शामिल हुआ
तो भूल गया कि
समय का पत्थर बरसाती बिजलियों की तरह
सीने में चिटकता है इन दिनों
तुम्हारे जाने के बाद भी हिम्मत भर लड़ा
और थका तो सपने में जाकर रोया
पर मेरी तुम!
काश आज तुम मुझे सुन लेती
हत्यारों में किया गया हूँ शामिल
आतताइयों का दोस्त बताकर किया गया है अट्टहास
पीठ पर बढ़ते जाते हैं अभिव्यक्तियों के घाव
मैं वहाँ हूँ जहाँ से इंसान का दायाँ हाथ
अपने ही बाएँ हाथ को पहचानने से इनकार करता है।
काश आज तुम मुझे सुन लेतीं
काश मैं तुम्हें छू सकता
जैसे इस दुनिया से बचाती हुई
अपने सीने में मुझे छिपाती हई
तुम कह देतीं-
नहीं, तुम्हारी गर्दन तुम्हारी आवाज़ की क़ीमत नहीं चुकायेगी
तुम्हारा 'जन्म एक भयंकर हादसा' नहीं था।
Sitaron Se Ulajhta Ja Raha Hun | Firaq Gorakhpuri

सितारों से उलझता जा रहा हूँ | फ़िराक़ गोरखपुरी
सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ
इन्ही में राज़ हैं गुल-बारियों के
मै जो चिंगारियाँ बरसा रहा हूँ
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ
अजल भी जिनको सुनकर झूमती है
वो नग़्मे ज़िन्दगी के गा रहा हूँ
ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
"फ़िराक़" अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ
Aapke Liye | Ajay Durgyey

आपके लिए | अजय दुर्ज्ञेय
आप यहां से जाइये!
आप जब मेरी कविताएँ सुनेंगे
तो ऐसा लगेगा कि जैसे
कोई दशरथ-मांझी पहाड़ पर
बजा रहा हो हथौडे
मैं जब बोलूंगा
तो आपको लगेगा कि
मैं आपके कपड़े उतार रहा हूँ और
न केवल उतार रहा हूँ बल्कि
उन्हीं कपड़ों से अपनी विजय पताका बना रहा हूँ
मैं जब अपने हक़ की कविता पढ़ंगा
तो आपको लगेगा कि
छीन रहा हूँ आपकी गद्दी,
छीन रहा हूँ आपका सिंहासन और इसी भय से
गलने लगेगीं आपकी हथेलियाँ, हड्डियाँ...
आप शर्म का बुत भी नहीं बन पायेंगे
मैं जब कविता पढूँगा तो
उसे सुनने के लिए आपको कोसेंगे आपके पुरखे
संभव है कि आपके बच्चे भी आपको गालियाँ दें और
आप रह जाओ बिल्कुल अकेले - एक आत्मस्वीकृति और
एक चुल्लू भर पानी के साथ। मैं जब कविता पढ़ँगा
तो आपको लगेगा कि आपके चुल्लू में आया वह पानी भी,
किसी और के श्रम का फल है। हॉँ! वह है-
बस आप समझने में विफल हैं।
और इसी बीच- कविताओं को सींच,
मैं जब रहूँगा मूक- तब भी आपको लगेगा कि जैसे
भरे दरबार, उतर गया है कोई शम्बूक-
जो चुप तो है मगर जिसकी आँखों में
तप है, प्रतिरोध है, अवज्ञा है। और जो बस यही पूछता है
कि वह कौन है? उसका अपराध क्या है? और मैं जब अपना अपराध पूछुँगा
तो आपको लगेगा कि आपके हाथों में पहना रहा हूँ हथकाड़ियाँ
और श्रीमान! सच तो यह है कि
आप यहाँ से जाइये या यहीं उपवास करिये या
नंगे बदन लेट जाइये या कुछ भी करिये - मगर अब,
जब तक यह जाति का पहाड़ रहेगा, किसी रूप में, एक इंच भी-
मेरा हथौड़ा नहीं रुकेगा।
Jab Teri Samundar Aankhon Mein | Faiz Ahmed Faiz

जब तेरी समुंदर आँखों में | फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ये धूप किनारा शाम ढले
मिलते हैं दोनों वक़्त जहाँ
जो रात न दिन जो आज न कल
पल-भर को अमर पल भर में धुआँ
इस धूप किनारे पल-दो-पल
होंटों की लपक
बाँहों की छनक
ये मेल हमारा झूठ न सच
क्यूँ रार करो क्यूँ दोश धरो
किस कारण झूठी बात करो
जब तेरी समुंदर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएँगे घर दर वाले
और राही अपनी रह लेगा